5 सितंबर 2014

ये सच है कि मनुष्य गलतियों से ही सीखता है लेकिन गलतियां जब मूर्खता और जल्दबाजी की वजह से हुई हों तो स्थिति एक बार पुनः आत्मविश्लेषण की होना स्वाभाविक है |पिछले कुछ महीनों में फेसबुक ,भिन्न भिन्न पत्रिकाओं और पुरुस्कारों के भुलावे में आकर एकमुश्त सभी ‘प्रसंषित’ किताबें खरीद लीं और उन्हें पढ़ना शुरू किया |ज़ाहिर था कि उनका एक विशेष आकर्षण और छवि मस्तिष्क में थी लेकिन जब पढ़ना शुरू किया तो कुछ तो उनमे से कुछ (बहुत कम ) वाकई अच्छी थीं लेकिन कुछ को पढ़कर लगा कि आखिर इनमे ऐसा क्या था जिसे इतना आभामंडित करके व्याख्यायित किया गया पुरूस्कार दिए गए ?माना कि पाठकों ,आलोचकों व् स्वयं लेखक की द्रष्टि में फर्क हो सकता है लेकिन इतना ?...सच हतप्रभ हूँ |  

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