30 अप्रैल 2014

औचित्य...?

क्या दुनियां की किसी भी त्रासद या अनैतिक/अ- स्वाभाविक/अ-सामाजिक कहीं जाने वाली घटना को प्रासंगिकता की ओट में लिखा जाना ..लेखक के सामाजिक दायित्व के दायरे में ज़रूरी और नैतिकता की द्रष्टि से क्षम्य माना जा सकता है बावजूद इस सत्य के कि दुनियां शानदार भौगोलिक / आध्यात्मिक /सामाजिक /नैतिक आदि उदाहरणों (विषयों )के अलावा भी सैंकड़ों अजीबोगरीब ,रहस्यमयी और क्रूर घटनाओं से भरी हुई है ?हबीब तनवीर द्वारा लिखित /मंचित नाटक बहाद्दुर कल्हारिन/कमलेश्वर की कहानी मांस का दरिया/ मंटो की अधिकाँश कहानियां और आज प्रियवंद की कहानी ‘’बूढ़े का उत्सव ‘’ पढ़कर यही विचार आया |निस्संदेह ये और इस तरह की सभी कहानियां या नाटक समाज की अपाहिज मानसिकता का परिचय देती हैं सच्चाई उघाड़ते हैं |इन्हें अश्लील तो कतई नहीं माना जा सकता | हबीब तनवीर के लोक नाटक ‘’बहादुर कलारिन ’’का सत्य सामाजिक नहीं बल्कि भावनात्मक रूढ़ियों (संबंधों ) के कोमल आवरण का तार तार हो जाना है | उसका अंत देखकर जो अभूतपूर्व महसूसियत (विरक्त बैचेनी) हुई थी वही आज प्रियवंद की कहानी ‘’बूढ़े का उत्सव ‘’ को पढ़कर हुई |प्रियवंद की ये कहानी संसार के उस एकमात्र शुद्ध रिश्ते को भावनात्मक स्तर पर छिन्न भिन्न करती है असम्भव कुछ भी नहीं के बावजूद |ये कहानियाँ पठनीय होते हुए भी पाठक को कल्पना (या सत्य ) के पहाड़ पर ले जाती हुई एक अजीब भावनात्मक व् अविश्वास के एक यंत्रणा पूर्ण शिखर पर छोड़ देती हैं | 

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