9 सितंबर 2013

कहानी -लॉफिंग क्लब

कहानी                                  लौफिंग क्लब
वो पांच थे ...शुरू में तो दो ही ..जोशी और खरे |मित्रता की वजहें पड़ोसी और हमउम्र होने के अलावा रुचियों में साम्यता भी थी जिनमे सबसे प्रमुख था सुबह शाम की सैर को जाना |रिटायर्मेंट के बाद आदमी अपने स्वास्थ्य के प्रति ज़रा ज्यादा ही सजग हो जाता है जीने की जिजीविषा बढ़ने लगती है | जोशी और खरे उन खुशनसीब लोगों में कहे जा सकते थे जिनका अतीत सामान्यतः संतुष्ट रहा |दौनों ही सरकारी नौकरियों से रिटायर हुए |बाल बच्चे ठीक ठाक नौकरी में लग गए बेटियाँ अपने घर की हो गईं | सैर उनके सेवा निवृत्ति के खाली वक़्त का सबसे भरा पूरा पन थी लिहाजा अब शेष ज़िंदगी की एक ज़रूरी आदत में शुमार हो गयी थी
अतीत के भोगे हुए यथार्थ वर्तमान में कभी कभी औचित्यहीन हो जाते हैं | कुछ बरसों पहले तक वो ज़मीन जहाँ कूड़े के अम्बार दिखाई देते थे राहगीर उस तरफ से मुंह फेर ज़ल्दी २ निकल जाना चाहते थे वहां अब नगर निगम ने फेंसिंग और एक गेट लगवा दिया था और फिर इस घूरे के दिन भी पलटे.... अब ये शहर के लगभग बीचोंबीच बना एक ख़ूबसूरत और आबाद पार्क था |सुबह रंग बिरंगे पक्षियों के कलरव ,सैर करने वालों जॉगिंग या ऐसे ही बेंचों पर बैठ यहाँ के दिलकश नज़ारे देखने वालों से आबाद रहती, दोपहर के सन्नाटों भरे कोनो में प्रेमी प्रेमिकाएं एक दूसरे का हाथ पकडे घूमते या कंधे पर सर टिकाये किसी सुनसान बेंच पर बैठे बतियाते नज़र आते रंगीन फव्वारे बच्चों के खेलने कूदने गेट के बाहर खोमचे ठेले वालों से गर्मियों की शामें गुलज़ार रहतीं| पार्क में दो तलीय रेशमी दूब का लॉन खुशबूदार फूलों की क्यारियाँ बैठने के लिए छोटे अनगढ़ पत्थर और कुछ बेंचें भी थीं |पूरी पक्की चोहद्दी पाम और अशोक के पेड़ों से घिरी थी और पत्थर की बाउंड्री से ही पीठ टिकाये बैठा वो ख़ूबसूरत नीला सरोवर भी था जिसमे रंग बिरंगी मछलियाँ और बत्तखें तैरती रहतीं |अब जोशी और खरे स्टेडियम जाने के बजाय इसी पार्क में आने लगे थे सुबह की सैर के लिए | कुछ दिनों बाद उन्होंने ही वहां आकर जोर जोर से तालियाँ पीटना और हंसना शुरू किया शुरू में लोग उन्हें अचम्भे से देखते लेकिन फिर धीरे धीरे ये एक रोजमर्रा की सामान्य सी गतिविधि मान ली गई ..मोर्निंग वॉक की तरह |
जोशी ने रिटायर होने से पहले हंसने के कई लाभ सुने थे और दो एक बार अपने दोस्त के साथ एक लोफिंग क्लब में गए भी थे |उन्हें तीस पैंतीस लोगों का एक साथ जोर जोर से हंसना तालियाँ बजाना .तालियाँ बजाते हुए हंसना वो भी बेवजह बेतरह सचमुच बहुत अजीब लगा  लेकिन उसके फायदे सुनकर वो उसकी और आकर्षित हुए थे | तर्क थे, इस आधुनिक और बेफुर्सत ज़माने में खुलकर हंसने के मौके ख़ास तौर से मध्यम वर्ग के पास ज़रा कम होते हैं अलावा इसके छोटे बंद फ्लेट्स में पंखों या एयर कंडीशनर की घुटी हवा आराम तो देती है पर फायदा नहीं ,उलटे नुक्सा ही करती है | उम्र बढ़ने के साथ ऑक्सीजन की ज़रुरत भी अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा होती है इसलिए पार्कों में आदमी घूम सकता है ताज़ी हवा और वातावरण का लाभ ले सकता है | लम्बी लम्बी सांसें खींचकर ऑक्सीजन अपने फेंफडों में भरना और जोर जोर से हंसना फेफड़ों को तो तरोताजा रखता ही है साथ ही मन को भी चिंता मुक्त करता और ताजगी भर देता है|
रिटायरमेंट बुढ़ापे के आमद की पुख्ता घोषणा होती है और वे बूढ़े घोषित कर दिए गए थे | |लिहाजा खरे और जोशी का सुबह सवेरे सैर को जाना बाग़ में हलके फुल्के व्यायाम करना नित्यप्रति के ज़रूरी कामों में शामिल हो गया था |अब जब पार्क उनके घर से कुछ दूरी पर बन गया था तो उन्होंने यहाँ लौफिंग क्लब बनाने का निर्णय ले ही लिया |पहले तो जोशी और खरे बस दौनों ही थे धीरे धीरे पार्क में सैर को आने वाले उनके हमउम्र स्त्री पुरुष उस क्लब से जुड़ने लगे |होते होते वहां बीस पच्चीस पुरुष स्त्रियाँ उस क्लब के सदस्य बन गए| इसके अलावा जोगिंग करते हुए कुछ युवक युवतियां कान में हेड फोन लगाये संगीत और मोर्निंग वॉक का दोहरा मज़ा लेते पार्क में आते ,कभी २ कुछ देर बैठकर बातें भी करते और चले जाते |जबकि कुछ लोग वहां सिर्फ कसरत करने आते थे |सबकी अलग दुनियां लेकिन मकसद एक ...फिट रहना ....|
अब लौफिंक क्लब में चुटकुले ,देश की ख़बरें ,व्यक्तिगत चर्चाएँ आदि भी होने लगीं,अपनापा बढ़ने लगा | शर्मा जी रोज़ आते थे वहां |वो प्राकृतिक चिकत्सा करते थे और आते वक़्त नीम तुलसी की पत्तियाँ तोड़ कर लाते और सभी को प्रसाद की तरह बांटते |क्लब में ज्यादातर रिटायर्ड लोग ही थे लेकिन वो सिर्फ पांच ही थे जो अचूक नियमित आते |
उनमे सबसे बूढ़े सक्सेना जी थे करीब पैंसठ बरस के |यूँ आजके ज़माने में पैंसठ बरस की उम्र होती ही क्या है ?अरे इस उम्र में तो लोग बाग़ मैराथन में हिस्सेदारी करते हैं नाटकों सिनेमाओं में बिंदास अभिनय करते हैं | राजनेताओं की तो आधी से ज्यादा कौम इन्हीं बुजुर्ग ‘जवानों’ से आबाद है ,लेकिन सक्सेना जी का बुढापा दरअसल उनकी वास्तविक उम्र को लांघकर आगे बढ़ गया था |सक्सेना जी ने इस पार्क में एक महीने पहले ही आना शुरू किया था | अपने हमउम्र लोखंडे से उनकी दोस्ती यहीं आकर हुई थी |जब और सब लोग कसरतों के बाद हंसी मज़ाक या यूँ ही घांस में टहलने लगते तब वो दौनों बातें करते रहते |लोखंडे सक्सेना जी से दो चार बरस छोटे ही थे लेकिन देह से कमज़ोर|वो अपने झुके कन्धों और दुबली पतली काया को लेकर चले आते सुबह मुंह अँधेरे आकर सूर्य को नमस्कार कर वहीं बेंच पर बैठ जाते |जैसे ही सक्सेना जी आते पार्क में लोखंडे के चेहरे पर खुशी तिर जाती | सक्सेना जी आते ही दो एक चक्कर तेज़ कदमों से लगाते पार्क का |बीच बीच में अपने से आगे जा रहे जोगिंग करते नौजवानों को देखते जाते अपने घिसटने का ख्याल किये बिना फिर अंत में क्लब के सभी सदस्यों के साथ घेरे में खड़े हो वो बेतहाशा हँसते और जोर से तालियाँ पीटते पूरी ताक़त लगाकर| उसके बाद थककर वहीं बेंच पर बैठ जाते कुछ देर वो और लोखंडे बातचीत करते | लोखंडे पार्क में नियमित नहीं आते थे अब तो वो बहुत कम कभी कभार ही आते  |
सक्सेना जी का मुंह पोपला था और आँखों में निराशा की परत स्थाई रूप से छलछलाई रहती लेकिन इस उम्र में ऐसा होना अमूमन मन में कोई शंका पैदा नहीं करता |हँसते में उनकी गर्दन की नसें अजीब तरीके से फूलतीं हाथों की कंपकंपाहट खुद को छिपा नहीं पाती | कभी २ उनकी साँसें फूलने लगतीं और वो वहीं बैठ जाते... कुछ देर सुस्ता हाथ ऊपर कर फिर जोर जोर ठहाके लगाने लगते | लोग बताते हैं कि वो ‘अपने ज़माने में’ काफी मस्त इंसान थे और कम सुनाई देने से पहले उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर भी गजब का था | उनकी गीली हंसी पसीने के साथ झिलमिला उठती |
दो दिन वो नहीं आये थे पार्क में |जब तीसरे दिन आये तो सभी ने कारण पूछा  
उन्होंने कहा ‘’कुछ नहीं थोडा सर्दी जुकाम हो गया था |आप तो जानते हो कि इस उमर में सर्दी जुकाम ही हलाकान कर डालता है ...वो मुस्कुराने लगे ...वैसे कल दिखाया था डॉक्टर को ..अब कुछ ठीक है
‘’अरे फोन कर दिया होता बाउजी (उन्हें सब वहां बाउजी ही कहते थे )...मै आ जाता स्कूटर से ले जाता आपको डॉक्टर को दिखाने..जोशी जी ने कहा
अरे नहीं नहीं जोशी साब अभी इतने भी व्रद्ध नहीं हुए हैं पैदल निकल जाते ...वैसे बेटी थी घर में लेकिन उसकी परिक्षा चल रही है सो उसे डिस्टर्ब नहीं किया |
                                 (२)
रात जाने और सवेरा उगने के बीच की बेला थी |वृक्षों दीवारों पर धीमी और धूसर सुबह पहुँच चुकी थी पर अन्धेरा अभी छंटा नहीं था |झाड़ियों में से अभी भी अँधेरा झड रहा था |खरे शहर से बाहर थे सो जोशी जी अकेले ही अपनी दरी और पानी की बोतल लेकर पार्क में आ गए थे वही सबसे पहले यहाँ आते थे | पूरा पार्क खाली था लेकिन बेंच पर कोई छाया सी दिखी शायद कोई बैठा है उन्होंने सोचा| पास आये ..सक्सेना जी थे
‘’अरे बाउजी आप इतनी जल्दी ?
‘’हाँ यार मन नहीं लगता घर में |सुबह उठते ही यहाँ आने का मन होता है ‘’
एक फीकी मुस्कुराहट हमेशा की तरह उनके चेहरे पर चस्पा थी |फिर वो कहने लगे ...
‘’छः महीने पहले जब से पत्नी गुज़री है घर में थोडा अकेलापन सा लगता है |सुबह तो यहाँ कट ही जाती है थोडा हंस बोल भी लेते हैं आप लोगों के साथ|वैसे दुःख कोई नहीं है हमें |बेटा और बहू नौकरी करते है घर में ही ऊपर रहते हैं |छोटी बेटी पढ़ रही है और बाकी सब सुविधाएं हैं ही ... उनके चेहरे पर संतुष्टि की छाया लौक गई
वो कुछ देर ज़मीन पर देखते रहे फिर बोले ...’मै सिंचाई विभाग से रिटायर हुआ छः बरस पहले |बड़ी बच्ची की शादी कर दी है ..बहुत दहेज़ देना पडा ..क्या करें लड़का अच्छा था | मकान खरीदा तो अपने ही फंड और कुछ जमा पूंजी से था लेकिन पत्नी की म्रत्यु के बाद एक विरक्ति सी हो गई जीवन से ‘हम भी अब न जाने कब तक’ सोचकर बच्चे के नाम कर दिया |
जी ..अच्छा ही किया..
सुनो पानी है क्या तुम्हारे पास ?कुछ दूर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा  
जी हाँ लीजिये ...जोशी जी ने पानी दिया उन्हें तब तक क्लब के और सदस्य भी आ गए थे और बात वहीं रुक गयी |
अब सक्सेना जी सुबह अँधेरे ही आ जाते और जोशी जी को बैठे मिलते क्लब की गतिविधियों के बाद जब सब चले जाते उसके बाद सबसे बाद में जाते |जाते वक़्त तक धूप आ जाती इसलिए ज्यादातर लोग अपने वाहनों से आते थे |लेकिन सक्सेना जी छाता लगाकर धीरे धीरे पैदल ही जाते |जोशी जी ने एकाध बार उनसे स्कूटर पर छोड़ आने के लिए कहा भी लेकिन उन्होंने मना कर दिया |
उस दिन जब जोशी रोज की तरह सुबह सवेरे पार्क में आये तो देखा पार्क के बाहर भीड़ के कुछ गुच्छे यहाँ वहां धब्बों से बिखरे हुए हैं और सक्सेना जी बंद गेट के सींखचे पकडे निरीह से भीतर देख रहे हैं |चौकीदार ने बताया कि कल इस सरोवर में एक आदमी ने कूदकर आत्महत्या कर ली थी अब ये पार्क कुछ दिनों के लिए बंद रहेगा |
सुनकर जोशी जी अचंभित रह गए ...अरे ये तो बड़ा बुरा हुआ ...कौन था वो कुछ पता चला ?
हाँ कोई लोखंडे नाम का बुजुर्ग आदमी बताते हैं ...
जोशी जी के मुहं से आवाज़ ही नहीं निकली ..उनका चेहरा सफ़ेद पड़ गया
अरे वो अपने लोखंडे बाबू?ये कैसे हो सकता है वो तो बहुत सीधे साधे और खुश मिजाज़ आदमी थे जोशी ने सक्सेना जी की तरफ देखते हुए कहा जो अब भी गेट के सींखचों को पकडे पार्क के भीतर ही देख रहे थे |
..चलिए फिर आपको छोड़ देता हूँ घर तक ...उन्होंने सक्सेना जी से कहा|  
जोशी ..यार एक रिक्वेस्ट है तुमसे ..सक्सेना जी के चेहरे पर तटस्थता का भाव था  |
जी बाउजी कहिये ..
तुम फ्री हो तो किसी और पार्क में चलते हैं . स्कूटर तो है ही तुम्हारे पास ...फिर मुस्कुराकर  बोले थोड़ा एडिक्शन सा हो गया है हंसी का मेरा मतलब आदत !
 चलिए...जोशी ने अनमने मन से कहा खबर सुनकर उनका मन विचलित हो रहा था |सक्सेना जी जोशी के स्कूटर पर बैठ गए ....
हंसना भी कभी कभी कितनी बड़ी ज़रुरत बन जाती है ज़िंदगी की ,और हंसी भूल जाने का डर  मौत से भी बड़ी दहशत | यहाँ पार्क में इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई वो भी इनके मित्र की मौत और ये उतने ही सहज और तटस्थ हैं ...शायद इसे ही सठियाना कहते हैं जोशी ने ये भी सोचा |
जोशी उन्हें एक जगह ले गए जो बड़े बड़े पेड़ों से घिरी थी और एकांत थी ...वो भी कोई पार्क ही था पर एकाध आते जाते लोगों को छोड़कर लगभग खाली था ...|
सक्सेना जी स्कूटर से उतरे ..उनका चेहरा उतरा सा लग रहा था
‘’बाउजी अभी तो सुबह ही है और आप अभी से थके से लग रहे हैं तबीयत तो ठीक है न आपकी?जोशी ने कहा   
सक्सेना जी ने अप्रत्याशित रूप से ठहाका लगाया फिर बोले  ...जोशी ...ज़िंदगी की शाम में सुबह नहीं होती यार शाम और उसके बाद सीधे रात ही होती है ..जोशी कुछ समझ पाते इससे पहले ही उन्होंने देखा सक्सेना जी दीवार की और मुहं फेरे दौनों हाथ ऊपर करके जोर जोर से हंस रहे हैं...जोशी कुछ देर अचम्भे से उन्हें देखते रहे ..न बात न चीत आते ही हंसना शुरू कर दिया ? ’’चलो अब आ ही गए हैं तो मै भी कुछ देर ये कसरत कर ही लेता हूँ उन्होंने सोचा और घड़ी उतारकर बेंच पर रख वो भी सक्सेना जी के साथ जोर जोर से हंसने लगे |

अचानक उनकी नज़र सक्सेना जी पर पडी वो बेतरह हंस रहे थे जैसे कई बीते या आने वाले दिनों की हंसी आज ही पूरी कर रहे हों |उनका हंसना सामान्य नहीं था जोशी के हाथ उनकी हांफती हुई सांसों को सम पर लाने के लिए उठ गए और वो जैसे ही उनकी और मुखातिब हुए  उन्होंने देखा सुबह की उस ताज़ी रोशनी में सक्सेना जी की बुझी हुई आँखों से अविरल अश्रु धार बह रही है जो मुलायम धूप में चमक रही थी | नकली हंसी के आंसू बिलकुल असली होते हैं या शायद बुढ़ापे में चेहरा ही हंसी और रोने का फर्क भूल जाता है !

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