30 अगस्त 2012


अभी अभी रात मेरे सिरहाने आकर बैठी है
अभी ही चाँद को मेरी आँखों ने छुआ है
अभी ही कोई रंगीन सपना नींद के हाथों छूट
बादलों में उड़ा है
 कोई तारा टूटा है आसमान से अभी ही 
तुमने कहा था एक दिन टूटते तारे को देख
मांग लो जो मांगना चाहती हो इससे
मैंने मांग लिया था तुम्हे
लेकिन सोचती रही थी देर तक
क्या टूटने में इतनी तासीर होती है?
हर तारा अपने आसमान से छिटक  
पत्थर ही तो हो जाता है लावारिस ,
लौटा देता है वो अपनी चमक चाँद को
टूटने से पहले

24 अगस्त 2012



 खिड़की से आती हुई हवा में
 फडफडा रहे हैं 
मेरी मेज़ पर रखे कुछ कोरे कागज
सन्नाटों को भरते हुए अपनी रिक्तता में 
घूरते हैं मुझको    
कलम की नोक पर कांपती हैं आत्मा  
शब्दों की'
मै तैरा देती हूँ उन्हें स्मृतियों की नदी में
नौका बना
इस तरह  
कूलों की अहमियत को
इज्ज़त बख्शती हूँ मै   
कोरा घड़ा हो,कोरा यौवन या फिर
कोरे पन्ने ही
कितनी जिजीविषा होती हैं इनमे अपने
भरे जाने की ?
सपनों को रख दिया है मैंने मौन की दहलीज़ पर
दीपक बना   
बुझा दिया है लेम्प
खिड़की खुली है अब भी  
पर कागजों में कोई हलचल नहीं
सोती हुई मासूम कतरनों को पढ़ना
अच्छा लगता है मुझे 

18 अगस्त 2012


१९०८ की महिला-क्रांति से लेकर
आज की नारी मुक्ति -भ्रान्ति तक
स्त्री आज़ाद होती रही है
किश्तों में
देस्दिमोना आज भी बैठी है उसी बिस्तर पर
मौत की प्रतीक्षा में सिर झुकाए जबकि
इमीलियायें लहरा रही हैं मुट्ठियाँ शब्दों की
झाड़ते हुए धूल अपने निर्मम भ्रमों से
हजारों सीतायें ,द्रोपदियाँ ,श्कुंतालायें क्या अब नहीं
अब कोई कथाकार नहीं उनकी कथाएं रचने को
ये अलग बात है ....| 
सिमोन द बुवा से लेकर
बेट्टी फ्रायड मैन और  
वालस्तानक्राफ्ट या ताराबाई शिंदे लेकर
आज तक  
 कभी हक और कभी
आजादी के लिए कितनी ही
लड़ाईयां लड़ीं हमने  
और तमाम अभी बाकी हैं
पुरुष सत्ता के अघोषित कुरुक्षेत्र में ,
क्या खत्म हो चुके हैं हमारे तमाम अस्त्र शस्त्र विरोधों के ,
मर्यादाओं,सभ्यताओं,विचारों,संवेदनाओं और
तर्कों के?
कि हम खींचने पर उतारू हैं
अपने ही प्रतिद्वंद्वी के हलक से
उसी की ज़ुबान (भाषा)?
और कहीं ,
बिछा रहे हैं अपनी प्रसिद्धि की चादर पर
स्त्री की ही देह और खुश हो रहे हैं
स्त्री की मुक्ति पर?
गढ़ रहे हैं अ-मर्यादाओं के
नित नए कीर्तिमान कोसते हुए
पुरुषों को ?
जबकि खेल जगत,विज्ञान और तकनीक के 
कीर्तिमान रचती स्त्रियों पर नज़र 
कम ही जाती है हमारी |
ये हमारी हीनता ग्रंथि तो नहीं ?
इतने खोखले ,तर्कहीन और गैरज़रूरी हो गए हैं तथ्य ,  
कि मुद्दों की प्रासंगिकता खो चुके है हम ?
ये किस किस्म की दया है और कैसा प्रतिशोध?
कैसी नारी शक्ति है और कैसी नारी मुक्ति?
क्या विरोध आरोपों से शुरू हो दया पर खत्म होना चाहियें?
क्या हो नहीं सकता ये कि बे-जड़ दरख्त को सींचने
और मुरझाने पर दुखी होने को त्याग हम
संवारें ज़र्ज़र जड़ें समूची व्यवस्था की?
क्यूँ कि अराजकताओं की इस लंबी व
श्रंखलाबद्ध परम्पराओं में और भी कई प्रश्न है
जो दबे हैं गहरी उलझी जड़ों में ,
स्त्री दुर-दशा के इस पौराणिक और
विशाल वृक्ष की |

14 अगस्त 2012

उदासी



सुबह ,
खुली खिड़की पर आकर बैठ गई है
रात ,सुबह के झरने में 
अपना चेहरा धो रही है  
रजनीगन्धा ने अभी अभी अपनी सुगंध का
आखिरी कोना झरा है
बिलकुल अभी ही खिड़की से आकर
गौरैया फुदक कर
आ बैठी है मेज़ पर रखी सरस्वती की मूर्ति की
वीणा पर
चहक रही है वो हौले हौले
रोज की तरह
दुधमुही बयार ने अभी ही डुलाया है
माथे पर मेरे केशो का झुरमुट    
पर आज मै मुस्कुरा नहीं पा रही हूँ  
रोज की तरह
मन इन सब बह्लावों को देखकर भी 
उदास है
ना जाने क्यूँ ?
अरे हाँ याद आया
अभी अभी मैंने एक
अधूरी कहानी को खत्म किया है | 

10 अगस्त 2012

एकांत

एकांत
एक ऐसा देश
सूर्य जहाँ विश्राम करता है
जहां  फूल निर्भय स्वछन्द हो
अपनी सुगंध बिखेरते हैं
पूरी प्रथ्वी पर |
नदियाँ बहती हैं चमकती दुपहर में
सूर्य की किरणों के साथ
अठखेलियाँ करती
अस्त होते सूर्य को अपनी सिंदूरी लहरों से
विदा देती और चांदनी रात में
रजनीगन्धा की तरंगों से
झिलमिलाते हुए गुफ्तगू करती हुई |
यही है वो देश जहाँ मै
संसार के रहस्य से मुक्त और
जीवन के सच से रू ब रू होती हूँ
यहाँ मैंने ईश्वर की आत्मा को
पानी की सतह पर तैरते हुए देखा है
(प्रकाशित कविता )